Sunday 14 February 2016

महाकारण
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आज से कुछ वर्ष पूर्व तमाम विपरीत परिस्थितियों से रूबरू होते हुए, कुछ अपनों के कीड़ावत व्यव्हार से आहत सुख-दुःख विषयक भाव इस प्रकार व्यक्त हुए।
सुख-दुःख क्या है?
कौन है सुखी? और दुखी कौन?
प्रश्न सामान्य, उत्तर दुरूह।
बहुत समझाया ……
पुस्तकों ने, पंडितों ने, ज्ञानियों ने,
फिर वही ढाक के तीन पात ,,,, सीता किसका बाप?
क्या संभव है बिना मरे स्वर्ग देखना?
नीर का गुण, कर्म, प्रभाव पढ़-सुन कर तृषा शांत करना?
उत्तर तुम्हे ही ढूँढना होगा
अंतर्मन की अतल गहराइयों में डूबना होगा
जाना होगा प्रश्न के मूल में
तब … दर्पण सा स्पष्ट हर प्रश्न होगा
क्योंकि वहाँ सिर्फ तुम और 'वो' होगा।
मैं सुखी, मैं दुखी, मैं यह, मैं वह,
मैं … मैं … मैं …
कौन हूँ मैं?
सुख-दुःख क्यों है और यह संसार है क्या?
क्या यही है सत्य, इसके पार है क्या?
हो तुम अमृत के अमर पुत्र, दिव्य चेतन आत्मा
विश्व के रंगमंच पर अवतरित एक विशिष्ट पात्र
परमात्मा की एक उत्कृष्ट कृति
न भूतो न भविष्यति।
परन्तु… कूप मण्डूक बन गए हम
कुएँ के अंधकार और घुटन भरे संकुचित दायरे में सिमट गए हम
बना लिए मनमुखी सिद्धान्त, बन कए कर्ता
सबमें रमता राम यह भूल गए
पशु तो दूर इन्सान की कद्र भी भूल गए
जाग उठा "मैं"
यह "मैं" ही तो "उसका" एक मात्र आहार है
पाप का मूल है, दुःख का सार है।
पहचानो अपना स्वरूप
श्रृगालों के बीच रमते सिंह हो तुम
निज कर्म, गुण व स्वाभाव को बिसरा दिए तुम
हो महीपति किन्तु करते चाकरी तुम
यह कुआँ नहीं है पूर्ण सत्य यह जान लो तुम
पहचानो सत्य
मन माया से छूट कर, निज स्वरूप को याद रख
निभाओ अपना किरदार
पूर्ण निष्ठां और समर्पण से।
यथा अभिनय …. तथा पुरस्कार।
यही है सुख-दुःख का आधार।

Friday 12 February 2016

परिवर्तन
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टोलेरैंट रहते मुझे, बीते वर्ष हजार।
टूटा मैं और मुल्क भी, हो गया बंटाधार।
हो गया बंटाधार, खड़ी खटिया भी हो गई।
बिस्तर भी भयो गोल, इमेज की थू-थू हो गई।
जिसका जब भी मन हुआ, मारे घूंसा-लात।
इंडिया वाला जानकर, करे न ठीक से बात।
जब मैं ऐसा था नहीं, सब कुछ था अनुकूल।
एक हाथ में गीता थी तब, दूजे में त्रिशूल।
तीन लोक चौदह भुवन, कहाँ नहीं था नाम।
देव-यक्ष-गन्धर्व-मनुज सब, करते थे सम्मान।
बिनु भय होय न प्रीत, कालजयी है सत्य यह।
चिंता मत कर मीत ,सुधर रहा हूँ आज फिर।