Tuesday 28 March 2017


म्हारी होली
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खेलैं मसान में होरी अघोरी खेलैं मसान में होरी।
भूत-प्रेत सब नाचत गावत, भस्म-भभूत उड्यो री। 
भैरव संग भैरवी नाचत, नाचत शिव संग गौरी। सखी री, खेलै ….
काम-वासना मयी होलिका, साधन अगिन जरयो री।
इन्द्रादिक, सनकादिक तरसे, खेलन को अस होरी। सखी री, खेलै ….
अंतरतम के निज मसान में, खुद बन बैठो अघोरी।
सुरति लगाय प्रिया से अपने, खेलो दिगंबर होरी। सखी री, खेलै ….

Sunday 14 February 2016

महाकारण
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आज से कुछ वर्ष पूर्व तमाम विपरीत परिस्थितियों से रूबरू होते हुए, कुछ अपनों के कीड़ावत व्यव्हार से आहत सुख-दुःख विषयक भाव इस प्रकार व्यक्त हुए।
सुख-दुःख क्या है?
कौन है सुखी? और दुखी कौन?
प्रश्न सामान्य, उत्तर दुरूह।
बहुत समझाया ……
पुस्तकों ने, पंडितों ने, ज्ञानियों ने,
फिर वही ढाक के तीन पात ,,,, सीता किसका बाप?
क्या संभव है बिना मरे स्वर्ग देखना?
नीर का गुण, कर्म, प्रभाव पढ़-सुन कर तृषा शांत करना?
उत्तर तुम्हे ही ढूँढना होगा
अंतर्मन की अतल गहराइयों में डूबना होगा
जाना होगा प्रश्न के मूल में
तब … दर्पण सा स्पष्ट हर प्रश्न होगा
क्योंकि वहाँ सिर्फ तुम और 'वो' होगा।
मैं सुखी, मैं दुखी, मैं यह, मैं वह,
मैं … मैं … मैं …
कौन हूँ मैं?
सुख-दुःख क्यों है और यह संसार है क्या?
क्या यही है सत्य, इसके पार है क्या?
हो तुम अमृत के अमर पुत्र, दिव्य चेतन आत्मा
विश्व के रंगमंच पर अवतरित एक विशिष्ट पात्र
परमात्मा की एक उत्कृष्ट कृति
न भूतो न भविष्यति।
परन्तु… कूप मण्डूक बन गए हम
कुएँ के अंधकार और घुटन भरे संकुचित दायरे में सिमट गए हम
बना लिए मनमुखी सिद्धान्त, बन कए कर्ता
सबमें रमता राम यह भूल गए
पशु तो दूर इन्सान की कद्र भी भूल गए
जाग उठा "मैं"
यह "मैं" ही तो "उसका" एक मात्र आहार है
पाप का मूल है, दुःख का सार है।
पहचानो अपना स्वरूप
श्रृगालों के बीच रमते सिंह हो तुम
निज कर्म, गुण व स्वाभाव को बिसरा दिए तुम
हो महीपति किन्तु करते चाकरी तुम
यह कुआँ नहीं है पूर्ण सत्य यह जान लो तुम
पहचानो सत्य
मन माया से छूट कर, निज स्वरूप को याद रख
निभाओ अपना किरदार
पूर्ण निष्ठां और समर्पण से।
यथा अभिनय …. तथा पुरस्कार।
यही है सुख-दुःख का आधार।

Friday 12 February 2016

परिवर्तन
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टोलेरैंट रहते मुझे, बीते वर्ष हजार।
टूटा मैं और मुल्क भी, हो गया बंटाधार।
हो गया बंटाधार, खड़ी खटिया भी हो गई।
बिस्तर भी भयो गोल, इमेज की थू-थू हो गई।
जिसका जब भी मन हुआ, मारे घूंसा-लात।
इंडिया वाला जानकर, करे न ठीक से बात।
जब मैं ऐसा था नहीं, सब कुछ था अनुकूल।
एक हाथ में गीता थी तब, दूजे में त्रिशूल।
तीन लोक चौदह भुवन, कहाँ नहीं था नाम।
देव-यक्ष-गन्धर्व-मनुज सब, करते थे सम्मान।
बिनु भय होय न प्रीत, कालजयी है सत्य यह।
चिंता मत कर मीत ,सुधर रहा हूँ आज फिर।

Thursday 14 January 2016

मकर संक्रांति :
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सूर्य मकरगत सृष्टि में, हुआ प्राण संचार।
बल, सुबुद्धि, आरोग्य का, सबमें हो विस्तार।
सबमें हो विस्तार, बढ़े नित भाई चारा।
दुःख-क्लेश सब मिटे, सुखी हो देश हमारा।
देश सुखी हो, मुल्ला-पंडित रहें किनारे।
अनपढ़ नेताओं को कोई, घास न डारे।
घास न डालें शत्रु को, दें जवाब माकूल।
एक हाथ में गीता रखें, दूजे में त्रिशूल। ……… आमीन ……… अघोर महाकाल।

Friday 8 January 2016

भारत माता की पुकार ……. जागो फिर एक बार
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आतंकवाद और हमारी भूमिका या करणीय कर्म तथा पालनीय धर्म पर माँ भारती हमसे क्या कह रही है?
मन के भाव इस इस प्रकार से उठे। शायद आपके मन के भाव भी यही हों। कुछ सड़ी गली मानसिकता वाले इसपर भी राजनीती कर रहे हैं। आश्चर्य है। और हम सब सहिष्णु-असहिष्णु का गेम खेल रहे हैं, ये उससे भी बड़ा आश्चर्य है।
भरा हो पेट, तो शायरी अच्छी लगती है।
अमन हो वतन में, तो ग़ज़ल भी अच्छी लगती है।
रो कर पुकार रही अपनी माता भारती।
श्रृंगार तान छोड़ बेटे, और कुछ सुना।
फूलों की सेज़ छोड़ कर, शमशीर अब उठा।
खुश रहें नौनिहाल ग़र, हल्ला भी धुन लगे।
हर शै लगे रंगीन, वीराँ भी चमन लगे।
कुदरत भी लगे है शोख, और माटी भी खुशबू दे।
बनारस की सुबह रूहानी, शाम-ए-लखनऊ सजे।
भुजायें क्यों तेरी फड़के नहीं, आँखें लाल क्यों नहीं?
दानिशमंद है तू, सूरमा, बुजदिल भी तू नहीं।
दामन मेरा दागदार करे किसकी है मजाल?
मेरे तो हैं सुभाष और अशफ़ाक़ जैसे लाल।
शिवा बनके रखी लाज, राणा भी बना था तू।
पृथ्वीराज, छत्रसाल और टीपू बना था तू।
भूषण बन के सोते हुओं को तुमने जगाया था।
फिरंगी जुल्मो सितम देख कर तू तमतमाया था।
भगत सिंह बनके मेरे बेटे, तूने रखी मेरी लाज।
गाफिल हो के क्यों बैठा है, तुझको क्या हुआ है आज?
बेटों तुमने मेरे नाम का डंका बजाय था।
उस्ताद-ए-आलम, सोने की चिड़िया भी बनाया था।
दहशतगर्द दामन को मेरे, खींचे खड़े हैं आज।
बेटों, देखते क्या, उठो जागो, रखो मेरी लाज।
क्या खूँ में तुम्हारे सुर्खी वो बाकी नहीं रही?
या दूध की तासीर मेरे ख़त्म हो गयी।
उठोगे नहीं गर आज, मिल जाओगे मिट्टी में।
ढूंढ़े से मिलोगे तुम, किसी बस संग्रहालय में।

Thursday 31 December 2015

NEW YEAR GIFT
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सोच रहा हूँ अपने मित्रों/हितैषियों को नव वर्ष में क्या उपहार दूँ?
कालाधन आने के बाद मोदीजी हर एक के खाते में लाखों रु. जब जमा करेंगे तब देखा जायेगा किन्तु मैं इस पोस्ट को पढने वाले अपने सभी मित्रों को करोड़ो रु. की सौगात दे रहा हूँ। मैं पुस्तकों का शौक़ीन हूँ। हर बुद्धिजीवी होता है। आज के ज़माने में महँगी पुस्तकें खरीदना बजट बिगाड़ देता है। सभी पुस्तकें खरीदना संभव भी नहीं। कुछेक साईट के यूआरएल दे रहा हूँ जहाँ से आप नई, पुरानी, प्राचीन, अर्वाचीन, दुर्लभ, सुलभ, कीमती, बेशकीमती पुस्तकों को डाउनलोड करके आराम से पढ़ सकते हैं। कृपया लाइक/कमेंट करने की जहमत न उठाये। शायद शबरी ने राम का इतना इंतज़ार नहीं किया होगा जितना मैंने इष्ट मित्रों की प्रतिक्रिया का किया। और मानसिक कष्ट पाया। "पर की आशा, सदा निराशा". मेरे गुरु ने मुझसे कहा था - "पुत्र, कभी किसी से कोई अपेक्षा मत रखना। यहाँ तक की नमस्कार की भी नहीं। सदा सुखी रहोगे। "माँग" तो बालों को भी अलग कर देती है।" 

फ़िलहाल करोडपति बनिए …………. 


(Books available in all languages & Topics)
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(a list of Hindi books (March 2015, 47.8Mb, 54000+ books)
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धिक्कार
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कई वर्ष पूर्व शायद 29 December ही के दिन सुबह के समय एक करीबी ने सूचना दी कि सद्दाम हुसैन को फाँसी दे दी गयी। सुन कर सन्न रह गया। पहली पंक्ति जो तत्क्षण मन में आई, वही कविता के रूप में ढल गयी। दिल से निकली वो आवाज़ कितनी सही थी, आप भी देखें -

सद्दाम, काश तुम होते हिंदुस्तानी।
या फिर तेरे देश में होते, हम जैसे बलिदानी। 
अंकल सैम की ना यूँ फिर, चलने पाती मनमानी।
सद्दाम, काश तुम होते हिंदुस्तानी।
सियासतदां बनकर जो किया, सब लाज़मी था।
वतन की बुलन्दी का सोचना भी लाज़मी था।
अमन की राह का रोड़ा हटाना लाज़मी था।
बागी देशद्रोही का कुचलना लाज़मी था।
बब्बर शेर सा दहाड़ना भी लाज़मी था।
गुलामों की तरह जीने से मरना लाज़मी था।
बेगैरत तेरे मुल्क के, ये लोग कैसे हैं?
मादरे वतन को वो सिर्फ क्या मिट्टी समझते हैं?
या फिर आबरू का मोल, तेरे देश में ना है?
घर में घुस के बैठा चोर, वो क्या खाक़ करते हैं?
ख़ाक-ए-कर्बला में क्या कशिश बाकी नहीं रही?
या फिर जंगजू अरबों में, अब वो बात ना रही?
सुन कर मौत की तेरे, ये आलम कांप उठा है।
हर इन्साँ के अन्दर का मुसलमाँ, जाग उठा है।
होते तुम यहाँ ग़र, हम ये दुनिया को दिखा देते।
माँद में शेर के, गीदड़ की क्या हस्ती बता देते।
अँधेरे ही करेंगे फैसला क्या आफताबों का?
जुनूँ की आग से अपने, अंधेरों को जला देते।
इस हश्र के हक़दार, तुम हरगिज़ नहीं थे।
पोरस बन गए तुम, वो सिकन्दर से नहीं थे।