Thursday 31 December 2015

धिक्कार
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कई वर्ष पूर्व शायद 29 December ही के दिन सुबह के समय एक करीबी ने सूचना दी कि सद्दाम हुसैन को फाँसी दे दी गयी। सुन कर सन्न रह गया। पहली पंक्ति जो तत्क्षण मन में आई, वही कविता के रूप में ढल गयी। दिल से निकली वो आवाज़ कितनी सही थी, आप भी देखें -

सद्दाम, काश तुम होते हिंदुस्तानी।
या फिर तेरे देश में होते, हम जैसे बलिदानी। 
अंकल सैम की ना यूँ फिर, चलने पाती मनमानी।
सद्दाम, काश तुम होते हिंदुस्तानी।
सियासतदां बनकर जो किया, सब लाज़मी था।
वतन की बुलन्दी का सोचना भी लाज़मी था।
अमन की राह का रोड़ा हटाना लाज़मी था।
बागी देशद्रोही का कुचलना लाज़मी था।
बब्बर शेर सा दहाड़ना भी लाज़मी था।
गुलामों की तरह जीने से मरना लाज़मी था।
बेगैरत तेरे मुल्क के, ये लोग कैसे हैं?
मादरे वतन को वो सिर्फ क्या मिट्टी समझते हैं?
या फिर आबरू का मोल, तेरे देश में ना है?
घर में घुस के बैठा चोर, वो क्या खाक़ करते हैं?
ख़ाक-ए-कर्बला में क्या कशिश बाकी नहीं रही?
या फिर जंगजू अरबों में, अब वो बात ना रही?
सुन कर मौत की तेरे, ये आलम कांप उठा है।
हर इन्साँ के अन्दर का मुसलमाँ, जाग उठा है।
होते तुम यहाँ ग़र, हम ये दुनिया को दिखा देते।
माँद में शेर के, गीदड़ की क्या हस्ती बता देते।
अँधेरे ही करेंगे फैसला क्या आफताबों का?
जुनूँ की आग से अपने, अंधेरों को जला देते।
इस हश्र के हक़दार, तुम हरगिज़ नहीं थे।
पोरस बन गए तुम, वो सिकन्दर से नहीं थे।

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